Wednesday, June 21, 2017

नामजद परिहास

नामजद परिहास
व्यंग्य में नेताओं के नामों का उल्लेख

इन दिनों अखबारी व्यंग्य लेखन में एक बात जो विशेष रूप से नजर आती है कि अब राजनेताओं  के नामों का उल्लेख बहुतायत से किया जाने लगा है। केजरीवाल, राहुल, मोदी, ममता, मुलायम   आदि का उल्लेख व्यंग्य रचना में सीधे सीधे होने लगा है।

मेरा मानना है कि यह विधा के सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। सड़क के प्रदर्शनोंआंदोलनों में नाम के उल्लेख के साथ जिंदाबादमुर्दाबाद की परंपरा रही है,लेकिन व्यंग्य एक साहित्यिक विधा है और उसकी अपनी गरिमा होती है।

ऐसा नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से व्यंग्य नहीं लिखे गए, खूब लिखे गए लेकिन वहां भी इस तरह सीधे सीधे नाम नहीं लिया गया। व्यंग्य में व्यक्ति की प्रवत्ति पर व्यंग्य होना ही चाहिए, हास्य भी होना ठीक है लेकिन नामजद परिहास या मखौल उड़ाए जाने को मैं निजी तौर पर ठीक नहीं मानता।
इन दिनों विशेषकर राजनेताओं के व्यक्तिगत नामों के उल्लेख के साथ उनके मखौल उड़ाते हुए किसी भी लेख को प्रकाशन की लगभग गारंटी की तरह माना जाने लगा है,उसमें भी केजरीवाल और राहुल के नामों को स्टार का दर्जा प्राप्त हैं।

हो तो यह भी रहा है कि यदि लेख की प्रकृति गैर राजनीतिक होती है फिर भी किसी तरह इन नामों को घुसेड़ देने के प्रयास दिखाई दे जाते हैं,जबकि विषय वस्तु से उसका कोई ताल मेल ही नहीं होता।
शरद जोशी जी सहित सभी श्रेष्ठ व्यंग्यकारों ने राजनेताओं को लेकर तीखे व्यंग्य लिखे हैं मगर वहां भी व्यक्ति नहीं बल्कि प्रवत्ति पर निशाना लगाया गया। और वे सहज रूप से है- परिहास के साथ विसंगति और अटपटे आचरण पर कटाक्ष की तरह आते थे। मखौल की तरह तो कदापि नहीं। व्यंग्य को नामजद गालियों की दिशा में जाते देख दुःख होता है। बाकी तो जो है सो है ही।

ब्रजेश कानूनगो


आलोचना में हिंदी शब्दों की खोज

आलोचना में हिंदी शब्दों की खोज 
ब्रजेश कानूनगो

एक साहित्यिक वाट्सएप समूह पर युवा कथाकार की कहानी पर सदस्यों की टिप्पणियां पढ़ते हुए एक सामान्य जिज्ञासा और प्रश्न सामने आया ।
'
क्या आलोचना में हिंदी शब्द स्वाभाविक रूप से अभी भी प्रयुक्त किये जाने से अपेक्षित प्रभाव नही छोड़ पाते ?'

मुझे कहानी पर अपनी बात कहते हुए अधिक ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल हिंदी में करना पड़ा, जबकि आगे साथियों ने अंग्रेजी के कुछ शब्दों के प्रयोग से बात को बहुत सहजता से संक्षिप्त में स्पष्ट कर दिया। कुछ बहुत प्रभावी शब्दों ने मुझे समृद्ध भी किया।

डीटेलिंग,अंडरटोन,क्राफ्टिंग,ट्रीटमेंट  आदि जैसे बहुत से  अंग्रेजी के शब्द आलोचना में बहुत प्रयोग में आते हैं। साहित्य ही नहीं अन्य कला समीक्षाओं में भी  अंग्रेजी शब्दावली का खूब प्रयोग हो रहा है और समझ के स्तर पर ये अधिक ग्राह्य भी हो रहे हैं। इनका विरोध नहीं है, बस इतनी ही ताकत के हिंदी पर्याय की खोज और प्रयोग की चिंता स्वाभाविक  है।

अक्सर यह कहा जाता है कि हिंदी भाषा की ख़ासियत ही यह है कि यह आम प्रचलित शब्दों का समावेश करते हुए विकसित हुई है।  चाहे वह उर्दू हो, अवधी या ब्रजभाषा हो या फ़ारसी और अन्य विदेशी भाषाओं से आये शब्द हों। कई वर्षों तक हिंदी अधिकारी की तरह कार्य  करते हुए मैंने स्वयं भी 'प्रयोजन मूलक हिंदी' को बढ़ावा देते हुए अक्सर ऐसे बचावी तर्क दिए हैं। सच तो यह भी है कि अनुवाद और अंग्रेजी का सहारा लेकर चलने से संभवतः हमने हिंदी को नुकसान ही पहुंचाया है।

बेशक़ अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल पर सवाल उठाया जा सकता है, स्वीकार और नकार पर बहस हो सकती है, होती भी रही है। पिछली कई  सदियों के  औपनिवेशवाद ने हिंदी पर अपना असर तो छोड़ा ही है कि अनेक दूसरी भाषाओं के  शब्द रोजमर्रा की भाषा में घुलमिल गए है। फिर भी भाषाई शुचिता के अंतर्गत सवाल उठना भी बेहद लाज़िमी है।
भाषाई शुचिता और शुद्धता और आग्रह जो अकसर दुराग्रह की सीमा तक पहुंच जाता है, खतरनाक भी हो जाता है। कभी कभी लगता है इसलिए ये जो घालमेल, मेल मिलाप फिलहाल ज्यादा हितकारी होगा। लेकिन क्या यहां रुक जाना चाहिए?

अगर रोजमर्रा की हिंदी में आलोचना में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी शब्दों की तरह हिंदी के शब्द प्रयुक्त होते रहते तो वे भी उतनी ही सहजता से आते जितनी आसानी से ये डिटेलिंग या क्राफ्ट, अंडरटोन, ट्रीटमेंट आदि आ जाते हैं।

भले ही दूसरी भाषा का अधिक समर्थ शब्द आकर्षित करता हो, हिंदी में हमें अपनी खोज और प्रयोग लगातार जारी रखना चाहिए। हमारा थोड़े से प्रयास काम को आगे बढ़ा सकते हैं।क्राफ्ट के लिए 'बुनावट' का प्रयोग भी होता है और वह ठीक और प्रभावी भी है। ट्रीटमेंट के लिए 'निर्वाह', विषय वस्तु का निर्वाह। भाव भी शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग से प्रबल होने लगते हैं।अनुवाद की बजाए शायद स्वतंत्र शब्द सत्ता की खोज जरूरी है। और फिर सम्पूर्ण कथ्य और वाक्य विन्यास के बाद ही शब्दों के अर्थ भी व्यापकता में खुलते जाते हैं।

यह विडंबना है कि 'फिजिकली चेलेंज पर्सन के लिए अभी तक हम कोई उचित संतोषजनक शब्द अब तक खोज नही पाए हैं।विकलांग- अपमान जनक हो जाता है और दिव्यांग- ईश्वरीय।

आलोचना में अंग्रेजी के खूबसूरत और सटीक शब्दों के इस्तेमाल का विरोध नहीं है, बस इतने ही सटीक हिंदी पर्याय की खोज और प्रयोग की चिंता है। इस ताकत को आलोचना की हिंदी शब्दावली में भी आना चाहिए। यदि हम कुछ कर सकते हैं तो जरूर किया जाना चाहिए। क्या कहते हैं आप!!

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर- 452018