Monday, March 7, 2016

धड़कनों को समर्पित कुछ कविताएँ

धड़कनों को समर्पित कुछ कविताएँ

कविता-1  
इंतज़ार करती माँ
ब्रजेश कानूनगो 

अमरूदों  से लद गए हैं पेड़
आंवलों की होने लगी है बरसात
गूदे से भर गईं हैं सहजन की फलियाँ
बीते कसैले समय की तरह
मैथी दाने की कड़वाहट को गुड़ में घोलकर  
तैयार हो गए हैं पौष्टिक लड्डू

होड़ में दौड़ते पैकेटों के समय में 
शुक्रवारिया हाट से चुनकर लाई गयी है बेहतर मक्का
सामने बैठकर करवाई है ठीक से पिसाई
लहसुन के साथ लाल मिर्च कूटते हुए
थोड़ी सी उड़ गयी है चरपरी धूल आँखों में
बड़ गई है मोतियाबिंद की चुभन कुछ और ज्यादा 

भुरता तो बनना ही है मक्का की रोटी के साथ
तासीर ही कुछ ऐसी है बैंगन की
कि खाने के बाद उदर में 
अग्निदेव और वातरानी करने लगते हैं उत्पात
छाछ ही है जो करती है बीच बचाव
कोई ख़ास समस्या नहीं है यह
घी बनने के बाद सेठजी के यहाँ
रोज ही होता है ताजी छाछ का वितरण

पूरी तैयारी रहती है माँ की गाँव में  
मैं ही नहीं पहुँच पाता हूँ हर बार
जानता हूँ बह जाता होगा बहुत सारा नमक प्रतीक्षा करते
ऊसर जाती होगी घर की धरती   
आबोहवा में बढ़ जाती होगी थोड़ी सी आद्रता  

सच तो यह है कि खूब जानती है माँ मेरी विवशता
खुद ही चली आती है कविता में हर रोज
सब कुछ समेटे अपनी पोटली में.

००००
   


कविता-2  
बेटी का आना
(एकता के लिए)
ब्रजेश कानूनगो 

सुबह आज थोड़ी देर से निकला सूरज
रात भी कुछ देर से हुई कल
सितारे कुछ अधिक ही मुस्कुराते रहे
सुबह होने तक

कुछ और हरा हो गया
पत्तियों का हरापन ओस में भीग कर
चांदनी पर खिले फूलों का उजास
घर के भीतर कहकहे लगाने लगा

हरे चने के पुलाव और मैथी की महक से
दब गई सूनेपन की उदास गंध

रात को आई है सुबह की तरह
लगता है गई ही नहीं थी कभी यहाँ से.


००००


कविता-3  
चिड़िया का सितार
ब्रजेश कानूनगो

चिड़िया फिर चली आई है आँगन में
रोज का आना जारी है चिड़िया का
तब भी आती थी
जब मैं खुद चहकता था चिड़िया की तरह

पिता बहुत प्यार से बिखेर देते थे
अनाज के दानें गोबर लिपे आँगन में
और इंतज़ार करने लगते थे बेसब्री से चिड़िया के आने का
थोड़ी देर में चली ही आती थी चिड़िया
और चुगने लगती बिखरे हुए दानें
कुछ चोंच में समेटकर ले जाती अपने घोसले में भी

कई बार चला आता है चिड़िया के साथ उसका पूरा परिवार

उस दिन भी नहीं भूली थी आना 
घर में आई थी जब एक और प्यारी चिड़िया
खुशियों का सितार लिए    
एक जैसी दिखती थीं दोनों चिड़ियों की आँखें

धीरे धीरे सुरीला संगीत सुनाते हुए
खेल खेल में झपट लिया उसने
चिड़िया को चुगाने का मेरा रोज का काम

चिड़ियों की दोस्ती धूप की तरह बिखरती तो  
कुछ पिघलने लगता था हमारे भीतर
 
खुशी की बात तो यह कि
संगिनी की बिदाई के बाद भी
पेड़ से उतरकर आती रही चिड़िया हमारी खैर खबर लेने

अंतरंग इतने हो गए हैं उससे कि 
खुश होते हैं तो वह 
भी नजर आती है पुलकित
मन उदास हो तो लगता है
गुजर रही है चिड़िया भी किसी दुःख से आज


सुबह सुबह ही आती है चिड़िया
दिन चढ़ने पर फिर से सूना हो जाता है आँगन
शायद चली जाती हो पास के शहर 
सितार बजाने वाली दोस्त से बतियाने
अगली सुबह चिड़िया में खोजते हैं हम
अपनी चिड़िया की ताजा कहानी
जानना चाहते हैं बजाए गए राग के बारे में

बिलकुल सच था हमारा अनुमान
कल जब फोन आया संगिनी का तो पता चला
एक चिड़िया रोज चली आती है भर दोपहर सितार सुनने
पानी-चुग्गा रखा जाने लगा है अब बालकनी में उसके घर 

यह बताते हुए भीग रहा था उसका स्वर
कि अब परदेस में बजाना पडेगा सितार
समझ नहीं पा रहा
कि यह खुशखबरी है या 
दुर्घटना की कोई सूचना
दूरियां बढ़ जाती हैं तो स्थानीय तरंगे
पहुँच नहीं पाती रिसीवर तक आसानी से

चिड़िया के बस में नहीं रहेगा अब खबर लाना 

कैसे जा पाएगी अब चिड़िया
इतनी ताकत नहीं है डैनों में कि उड़ सकेगी इतनी लम्बी दूरी
मुश्किल है सात समुन्दर का फासला तय करना

नहीं...नहीं.. बिलकुल नहीं पहुँच पाएगी वहाँ 
हमारी यह नाजुक देसी चिड़िया

तसल्ली की बात है कि
उम्मीद के कुछ परिंदे देशांतर से अभी भी
आते रहते हैं पर्यटन करने 
भरोसा यह भी है कि
संगिनी बजाएगी सितार
और कर लेगी किसी विलायती चिड़िया से नई दोस्ती


कहीं की भी क्यों न हो
चिड़िया तो बस चिड़िया होती है
सबको डालते रहेंगे दाना बेनागा

करते रहेंगे चिड़िया के आने का इंतज़ार
जब आएगा कोई दिसावर पक्षी
पूछेंगे उससे कि
कैसा बजा रही है बिटिया वहाँ सितार . 

००००
 


कविता-4  
देवी मंदिर में
ब्रजेश कानूनगो

श्रीमानजी !
आप बहुत भाग्यशाली हैं
जो पधारें हैं माता मंदिर में 
 
सुबह बच्ची
दोपहर युवती
शाम को औरत का
रूप धरती है चमत्कारी प्रतिमा

धन्यवाद पंडित जी!
सच तो यह है कि
फूल-पत्तों, धरती-आकाश
हर जगह दिख जाता है अक्सर
देवी का यह अद्भुत रूप मुझे

एक देवी चहक उठती है सुबह-सुबह  
थकान को हर लेती दूसरी
एक का नेह भरा हाथ
विश्वास से भर देता है हर शाम       

क्षमा करें
भीतर नगाड़े सा कुछ बजने लगा है
मुझे घर लौटना चाहिए अब.

००००
 



कविता-5  
दो लड़कियों की तस्वीर
ब्रजेश कानूनगो

पहाड़ी ढलान से उतरती दिखाई दे रही हैं
तस्वीर में दो लड़कियाँ

उनके पैरों की स्थिति बता रही है कि
बहुत सावधान हैं उनके कदम

वैसे संभल कर चलना
कोई अटपटी बात नहीं है
रास्ता वीरान और ऊबड़ खाबड़ हो तो
लाजिमी हो जाती है सावधानी

यह भी संभव है कि
उनके साथ में हो कोई तीसरी लड़की
जिसके हाथ में रहा हो कैमेरा
पुरुष साथी भी हुआ तो
क्या फर्क पडेगा उनके बतियाने में

ये जो सौन्दर्य बिखरा पड़ा है आसपास
जरूर हलचल मचा रहा होगा उनके भीतर

कैमरे की आँख ने चाहे 
नहीं पकड़ी हैं उनकी आँखों की चमक
फिर भी कुछ तो है तस्वीर में
जो उनकी पीठ के पीछे भी सुनाई दे रहा है
वायलिन से निकले संगीत की तरह
 
देह भाषा के साथ बिखर रही है
प्रफुल्लता की खुशबू 
खुली हवा में

अरे यह क्या हुआ अचानक
एक नदी बह निकली है
अनायास तस्वीर के भीतर से 
बहने लगे हैं लड़कियों के सुख दुःख
धारा के साथ साथ 

बर्फ जब पिघलती है
तो रोक नहीं सकते उसका बहना

आगे जाना अब मुश्किल होगा शायद 
फिसलन बहुत हो गयी है रास्ते पर
बारिश है कि रुकने का नाम नहीं ले रही
ठिठक गईं हैं तस्वीर की दोनों लड़कियाँ

भीगती ही जा रही है लड़कियों की यह तस्वीर.

००००


कविता-6  
पांच हजार शामों वाली लड़की
ब्रजेश कानूनगो  

ज्येष्ठ की तपन भी
साँझ की बयार में बदल जाती है
दोपहर को जब चली आती है
पांच हजार शामों वाली लड़की.

रात तो फिर रात ही है. 
न जाने कितनी सदियों से 
दुनिया के अँधेरे से लड़ते हुए
प्रेयसी कहें पत्नी कहें या माँ कह लें
बहन या बेटी होकर भी यही करती रही
कहीं और जाकर भी
दिया जलाती रही

रोशनी से जगमग करती रही सबका संसार
पांच हजार शामों वाली लड़की.

यूँ तो बहुत हैं जमाने में 
खैर खबर लेने वाले 
जब रात को अकड़ जाती है कमर 
पांच हजार दोस्त नही
वही होती है चिंतित 
पांच हजार शामों वाली लड़की.

रहस्य ही है अब तक
पांच हजार हमारी शामों को
ख़ूबसूरत बनाती लड़की के दुःख
ख़त्म नहीं होते
पांच हजार नई सुबहों के बाद भी.

००००



कविता-7  
बारिश के पहले 
ब्रजेश कानूनगो 

आने से पहले
कुछ और भी चला आता है
सूचना की तरह
जैसे उजाले से पहले
गुलाबी हो जाता है आकाश
  
मानसून के पहले
मेघ आते हैं मुआयना करने
टॉर्च जलाते हुए
बूंदों के पहले कोई अंधड़
अस्त-व्यस्त करता है जीवन

सौंधी महक में लिपटी   
याद आती है तुम्हारी
बारिश से ठीक पहले.  


००००
 

कविता-8     
बंटी की मम्मी मायके जा रही है

बीमार हैं
बंटी की मम्मी के पिता

जरूरी है जाना
जाना जरूरी है
क्योंकि बीमार हैं पिता

और बहनें भी आ रहीं हैं
पिता से मिलने

बंटी के पापा नही जा रहे साथ
काम बहुत है दफ्तर में
इतना काम है कि
याद आ रहे उन्हे
अपने पिता

अकेली ही जा रही है
बंटी की मम्मी
सूचनाओं और हिदायतों की सूची
जारी करती हुई

टेस्ट है बंटी का शनिवार को
प्रश्नावली सात के सवाल
समझाने है उसे

सूख रहा है बनियान बाथरूम में
आने हैं धोबी के यहाँ से
आठ कपडे प्रेस होकर



रखना पडेंगे दरवाजे खुले हुए
नहीं तो निकल जाएगी महरी चुपचाप

लॉकर की चाबी
छुपा दी है पुस्तकों के पीछे
निकाल दिए हैं कँकर चाँवल में से
आटे के कनस्तर के पास रखा है दाल का डिब्बा

बन्द कर दिया है गैस का रेगुलेटर ठीक से
स्कूटर चलाना है धीरे-धीरे
ठीक करवाना है उसके ब्रेक
सबसे पहले

समय पर खानी है
ब्लड प्रेशर की दवाई

सचेत करती हुई
बंटी के पिता को
मायके जा रही है
बंटी की मम्मी
अपने पिता से मिलने

सचमुच जा रही है
क्या मायके !

००००




कविता-9
पुरानी लोहे की आलमारी


खोलकर संग्रहालय के दरवाजे
जब चाहे प्रवेश करती है उसमें वह स्त्री

कुछ सस्ती मालाएँ
पुरानी तस्वीरों का एक एलबम
कुछ चिटि्‌ठयाँ,ऊन के गोले
अधबना एक छोटा स्वेटर
पुरानें गीतों के कुछ कैसेट
जाने क्या-क्या सहेज रखा है आलमारी में

यह आलमारी के कब्जों की चरमराहट नहीं है
चला आ रहा है कोई थके हुए कदमों से
समय की धूल है यह
जो जम गई है उसकी देह और
आलमारी के अस्तर पर एक साथ

रूप का अपना नया प्रतिबिंब देखती है हर रोज
आलमारी में जड़े हुए दर्पण में
झील के पानी में नजर आती है ज्यों
पतझड़ के ठीक पहले
पेड़ की परछाई।

००००

  


कविता-10
नक्शे में कैलिफोर्निया खोजता पिता

चालीस डिग्री अक्षांश और
एक सौ दस डिग्री देशांतर के बीच में
यहाँ इधर,थोडा हटकर,बस यहीं
यही है कैलिफोर्निया
ज्यादा दूर तो दिखाई नही देता नक्षे में!

उडने के छत्तीस घंटे बाद
फोन किया था बेटी ने
बहुत दूर है कैलिफोर्निया

ईंधन लेने के लिए
यहाँ उतरा होगा विमान
बेटी ने बिताए होंगे
पाँच घंटे अकेले

यहाँ से बदलना पडता है विमान
एक बैग भर ही तो था पास में
सामान तो शिफ्ट कर ही देते होंगे एयरवेज वाले

जरा देखें तो
कैसी है जलवायु कैलिफोर्निया की
बारिश होती है यहाँ कितनी
कितना रहता है सर्दियों में
न्यूनतम तापमान

समुद्री हवाएँ कब बहती हैं इस ओर
तपती तो होगी गर्मियों में धरती
मौसम होते भी हैं या नही
कैलिफोर्निया में




कौनसी फसलें बोते हैं कैलिफोर्निया के किसान
मिल ही जाता होगा बाजार में
गेहूँ और चावल

‘जितने कष्ट कंटकों में है...’
दसवीं कक्षा में पढी कविता की अनुगूंज में
घुल रही है बेटी की आवाज
नक्षे की रेखाओं से होता हुआ
पहुँच रहा है पिता का हाथ
बेटी के माथे तक !

००००




कविता-11
शुभारंभ

अंजानी पीडा के इंतजार में
निहार रहीं थी लगातार
आभूषणों को उजला बनाते सुनार को
दस और बारह बरस के बीच की
दो लड़कियाँ

चिमनी की लौ को
जेवरों की दिशा में फैँकने में व्यस्त सुनार
नहीं देख पा रहा था उनके  चेहरों के रंग
गहनो से अधिक थे जिन पर
कुतुहल और डर के रंग
आ जा रही थी जहाँ
खुशी की मद्धिम चमक बार-बार

अपनी उम्र का जरा सा अधिक
आत्मविश्वास लिए बड़ी लड़की
रख देती थी अपना हाथ
छोटी के माथे पर
थोड़ी-थोड़ी देर में

इशारा होते ही
दोनो हाथों से गालों को थामकर
छोटी लड़की ने
बंद कर ली अपनी आँखें झटपट
चाँदी के बारीक तार से
छेद दिया सुनार ने सहजता से
उसकी नर्म नाक को
झिलमिलानें लगे पारदर्शी मोती आँखों में भी

खिलखिलाती रहीं दोनो लड़कियाँ
जैसे तालियाँ बजाती रहीं हों बहुत देर तक
किसी शुभारंभ पर।

००००



कविता-12
छुप जाओ कजरी


सुन्दरता के तमाम प्रयासों और गहरे सौन्दर्यबोध के बावजूद
कजरी सौन्दर्य प्रतियोगिता में शामिल नही है

जो जवार के आटे का उबटन चुपडकर
हर रोज बहा आती है देह का मैल
गाँव की ठहरी हुई नदी में

खेत की मुलायम मिट्टी से बालों को धोकर
लकडी की सख्त काँगसी से सहेज कर
गूंथ लेती है सांकल की तरह
और बांध लेती है एक चटक रिबन
ओढनी में लगाती है सुनहरी किनारी
और लहंगे में टाँकती है चमकीले फूल

मिट्टी की दीवार पर खजूर की कूची से
बनाती है तोता,साँतिया और गणेश
आँगन को गोबर से लीपकर
गेरू और खडिया से माण्डना उकेरती है वह
सावधान कजरी
तुम्हे सुन्दरी घोषित करने का षडयंत्र प्रारम्भ हो गया है
अब किसी भी दिन
विशिष्ठ मिट्टी का आयात होने लग सकता है
गेरू,गोबर और खडिया
किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के आकर्षक कनस्तरों में बेचे जा सकते हैं
जवार के आटे से निर्माता बना सकता है साबुन
लकडी की काँगसी का विज्ञापन दूरदर्शन पर आ सकता है
छुप जाओ कजरी किसी ऐसी जगह
जहाँ सौदागरों की दृष्टि न पहुँचे।

००००





कविता-13
भरी बरसात में बेवजह मुस्कुराती लडकी


इतनी थी बारिश कि घर लौटते हुए
मुश्किल हो रहा था इधर-उधर देखना

तभी अगली गली से निकल कर
एक स्कूटर अचानक
दौडने लगा मेरे स्कूटर के साथ-साथ
जिसकी पिछली सीट पर बैठी थी वह लडकी
मूर्ति की तरह भीग रहा था जिसका शरीर

अचानक मुस्कुराने लगी लडकी मुझे देखकर
बारिश की तरह रुकता ही नही था उसका मुस्कुराना

अचरज की बात यह कि
बरसाती टोपी और लम्बे कोट में छुपे मुझको
पहचान लिया उसने भरी बरसात में
शायद रहती हो मेरे घर के आस-पास
कॉलेज की पुरानी कोई सहपाठी
पत्नी की सहेली
या टीचर रही हो बेटी की

बौछरों को भेदते हुए
पहुँच रही थी मुझ तक उसकी मुस्कुराहट

घूम गया हो उसका सिर किसी सदमें से
और निकल रहा हो दु:ख मुस्कुराहट बनकर
जब गूँजता है कोई शोक गीत अन्दर
होठों पर यूँ ही आ जाती है हँसी यकायक
कहीं जा तो नही रही किसी रिश्तेदार के साथ
इसी हँसी का इलाज करवाने

सोचता हूँ वह बीमार ही रही होगी
जो मुस्कुराती रही लगातार अपने दु:ख में
सुखी आदमी कहाँ मुस्कुराते हैं राह चलते।

००००



कविता-14
मदर टेरेसा 


मैं मिला नहीं कभी तुमसे मदर टेरेसा
लेकिन जानता हूँ
तुम्हारी साड़ी की किनारी में बहा करती थी
मानवता की नदी

रहती थी तुम्हारे चेहरे पर
वैसी ही मुस्कान
वैसी ही करुणा
जैसी रहा करती है
माँओँ के चेहरों पर

तुम्हारी आँखों में दुखी बेटा
पा लेता था सुख की बूँदें
बीमार बेटी के माथे पर रखा तुम्हारा हाथ
कम कर देता था
उसकी देह का ताप
सूख जाते थे पीढ़ा केपोखर
तुम्हारे शब्दों से

रुकी हवा बहने लगती थी चारों तरफ
लहलहाने लगती थी उमंग की हरियाली

रोगियों के विश्वास
तुम्हारे जीवन को
मरता प्रदान करते रहे मदर

हवा की तरह
महसूस करते हैं हम तुम्हे
दुनिया भर की माँओँ में
मिल जाती है तुम्हारी गंध।

0000 

कविता-15
व्रत करती स्त्री

प्यासी रहती है दिनभर
और उडेल देती है ढेर सारा जल शिवलिंग के ऊपर

पत्थर पर न्यौछावर कर देती है जंगल की सारी वनस्पति

बनाकर मिट्टी का पुतला
नहला देती है उसे लाल पीले रंगों से

लपेटती जाती है सूत का लम्बा धागा
पुराने पीपल की छाती पर
करती है परिक्रमा पवित्र नदी की
और लगा लेती है चन्दन का लेप
पैरों के घावों पर

सरावलों में उगाकर हरे जवारे
प्रवाहित करती है सरोवर में उन्हे

क्षयित चन्द्रमा को चलनी की आड से निहारते हुए
पति के अक्षत जीवन की कामना करती है व्रत करती स्त्री

एक आबंध की खातिर
सम्बन्धों की बहुत बडी डोर बुन रही है
जैसे बाँध लेना चाहती है धरती-आकाश ।

००००







कविता-16
घर की छत पर बिस्तर
ब्रजेश कानूनगो 

घर की छत पर फिर लगे बिस्तर
अस्सी बरस की माँ की गोद में जा लेटा
उनसाठ बरस का बच्चा  

रुई से भरा  आकाश
सिनेमा हाल का जैसे विशाल परदा
हवाओं के साथ बदलते कहानी के दृश्य   

कभी हाथी तो कभी लाल पान का बादशाह
पल-पल में बदलती तस्वीर
घोड़े में बदल गया बादशाह यकायक  
हाथी उड़ गया कबूतर की शक्ल में

न बादशाह
न हाथी
न कबूतर
कुछ भी नहीं रहा थोड़ी देर बाद
अँधेरे में विलीन हो गईं चित्रकथाएँ

घर की छत पर लेटा
थपकियों की ताल पर
एक बेटा बचपन को याद करता रहा
सुनता रहा देर तक माँ की बे-आवाज लोरी
उतारता रहा दुनिया भर की थकान.


००००  

ब्रजेश कानूनगो