Saturday, December 3, 2016

जटिलता और सरलता

जटिलता और सरलता
ब्रजेश कानूनगो

एक

साहित्य में सरलता,जटिलता का सवाल सिक्के के दो पहलुओं से निकलकर आता है. पाठक और लेखक दोनों की भूमिका इसमें विमर्श के पूरक बिंदु हो सकते हैं.
 
सन्दर्भों की जानकारी और ज्ञान के अभाव में भी पाठकों  को कोई रचना जटिल लग सकती है। इसमें न सिर्फ पाठक को अपने को तैयार करना होता है बल्कि समालोचक या टीकाकार की भूमिका भी यहां बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है। कोइ भी रचनाकार जानबूझकर अपनी रचना को जटिल नहीं बनाना चाहता। उसका अभीष्ट तो सामान्यतः यही होता है कि जो कुछ वह अनुभव कर रहा है वह कलागत सौन्दर्य के साथ उसी तरह पाठक/श्रोता तक पहुंच सके। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति बन सके। अपवाद तो हर कहीं हो सकते हैं।

जीवन की जटिलताओं को सरलता से अभिव्यक्त कर देना, हरेक लेखक के लिए शायद आसान काम नहीं होता। ज्यादातर लेखक तो जीवन की जटिलताओं तक पहुंचने में ही कतरा जाते हैं. कइयों के पास अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त सरल शब्दावली ,भाषा शैली के अभाव के चलते उचित प्रयोग का भी संकट खड़ा होने की संभावना बनी रहती है।
हरेक शब्द की अपनी सत्ता और आभा मंडल होता है।सम्पूर्ण कथातत्व की अभिव्यक्ति और सही संप्रेषण और कहे गए को सही अर्थ देने के लिए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग  रचना में सौंदर्य का कारक बनता है।इस सौंदर्य में कभी व्यंजना और लक्षणा शक्तियां उभरती हैं विशेषतौर पर व्यंग्य लेखन में। समर्थ रचनाकार शब्दों के सही इस्तेमाल से जटिल से जटिल सन्दर्भों को सरलता से पाठक के गले उतार देने में सफल होता है।
इन्ही प्रयासों में थोड़ी कमी रचना को दुरूह भी बना सकती है,लेकिन इसकी परवाह सामान्यतः अब ज्यादा की नहीं जाती। हमें छद्म साहित्य से अलग हटकर ही विचार करना चाहिए.

किसी भी रचना में पाठ के स्तर पर बाहरी और आतंरिक कईं परतें होती हैं, जिसके कारण भी जटिलता/सरलता का सवाल खड़ा हो जाता है। किसी भी वास्तु की मेक्रो और माइक्रो बनावट की तरह रचना भी ऐसे ही कई पाठों का समुच्चय होती है। पाठक का एनेलेसिस भी पढ़ते हुए मेक्रो और माइक्रो स्तर से गुजरता है. जो पाठक बाहरी परत को छूकर मजा ले लेता है उसके लिए वह रचना जटिल नहीं है. जटिल तो वह तब होती है जब वह भीतरी परत तक पहुँचने में कामयाब नहीं हो पाता. जहां सच्ची रचना की आत्मा निवास करती है.

जो मॉइक्रो तक नहीं पहुँच पाता वह जटिलता में उलझ जाता है लेकिन जैसे ही वह भीतर उतरता है, आनन्द से भर उठता है, ख़ुशी में 'मिल गया मिल गया' का नाद करता बगैर टॉवेल लपेटे आर्केमिडीज की तरह अध्ययन कक्ष से बाहर दौड़ लगा देता है। यह अनुभूति किसी साधक की आत्मा के  परमात्मा से मिलन की ख़ुशी जैसी होती है। लगता है हिमालय में भटकते हुए यकायक फूलों की घाटी में पहुँच गए हों. यह होता है रचना के असली पाठ को पा लेने का अद्भुत सुख।

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दो

हालांकि अपनी किसी रचना का उदाहरण देना ठीक नहीं माना जाता है लेकिन रचना की सरलता और कठिनता पर अपनी बात स्पष्ट करने के लिए बहुत विनम्रता और संकोच के साथ अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए ऐसा कर रहा हूँ। ये कविता देखिये...

दूरियाँ
ब्रजेश कानूनगो

1
बहुत दूर थे..
इतने दूर कि
मोबाइल से बात कर रहे थे
एक पलंग के दो छोर पर थे दोनों !
2
एक छींक आती है उनको स्क्रीन पर
तो हम बीमार हो जाते हैं
इतने करीब हैं वे
जैसे लेपटॉप पर कैमरे की आँख.
3
शाम की सैर के बाद
आरामकुर्सी पर सुस्ताएंगे अभी आकर 
दाल बघारने की वही अद्भुत खुशबू
फिर बिखर जाएगी थोड़ी देर में
चौथाई सदी की दूरी के बावजूद
साथ-साथ हैं वे अभी-तक.

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देखा जाए तो इस कविता के पहले हिस्से पर ठहाका लगाया जा सकता है। वह एक चुटकुले की तरह सरल पाठ होगा। लेकिन यदि भीतर जाएँ तो वहां जो आधुनिक समाज और गृहस्थ जीवन की जटिलताएं हैं वे हमारे रोंगटे खड़े कर देने वाली हो सकती हैं।
इसी तरह दूसरे अंश में भी सब सरल महसूस किया जा सकता है, लेकिन वहां दूर बैठे बच्चों, परिजनों की चिंता में पेरेंट्स की मनोदशा, विवशता की जटिलताएं आसानी से पढ़ीं जा सकती हैं।
कविता के आखिरी हिस्से में वृद्ध दंपत्ति में से एक के दुनिया से चले जाने के बाद उत्तरजीवी का अकेलापन और स्मृति के सुन्दर अतीत को दैनिक अनुभव करना, जीवन की जटिलता ही तो है। 
यदि रचनाकार अपनी इस अनुभूति को पाठक तक पहुंचाने में सफल होता है तो रचना पाठक के लिए सरल है अन्यथा वह थोड़ी जटिल हो जायेगी।

निसंदेह टीका या समीक्षा के बाद रचना की जटिलता कम होती जाती है। यह बात साहित्य में  ईमानदार टीकाकार, समीक्षक की भूमिका को रेखांकित  करती है।

ब्रजेश कानूनगो



Monday, November 14, 2016

हिन्दी व्यंग्य और कुछ टिप्पणियाँ

हिन्दी व्यंग्य और कुछ टिप्पणियाँ                  
ब्रजेश कानूनगो

1.हिंदी गद्य की अन्य विधाओं के बीच व्यंग्य की उपस्थिति और उपलब्धि

इस प्रश्न के उत्तर में दो तरह से विचार किया जा सकता है।
पहला- हिंदी गद्य की अन्य विधाओं के बीच व्यंग्य विधा की स्थिति।
दूसरा- हिंदी गद्य विधाओं के बीच व्यंग्य की स्थिति।या अन्य विधाओं में व्यंग्य की स्थिति।

पहले नजरिये से अन्य गद्य विधाओं के बीच व्यंग्य विधा की स्थिति अभी भी उतनी सम्मानजनक नहीं दिखाई देती जितनी कि कहानी,उपन्यास,कविता या नाटक इत्यादि की है।उपन्यासकार और कथाकारों को थोड़ा ऊंचा दर्जा प्राप्त, हिंदी साहित्य में दिखाई देता है।जहां तक कविता और कवियों की बात करें तो वहां भी आलोचक की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है।कवि को प्रतिष्ठित कर देने का काम बहुत हद तक कोई आलोचक बहुत कुशलता से करने में समर्थ दिखाई देता है।जबकि व्यंग्य विधा का तो अभी तक कोई संतोषजनक सौंदर्य शास्त्र या आलोचना कर्म उपलब्ध ही नहीं है।इस मायने में व्यंग्य विधा की स्थिति अभी बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती। इसी कारण व्यंग्य विधा के प्रमुख नामों में से भी अधिकाँश उनके उपन्यासों और कहानियों की वजह से जाने जाते हैं।

इसी तारतम्य में दूसरे नजरिये पर भी सहज ही बात स्पष्ट हो जाती है।
अन्यविधाओं में जैसे ही व्यंग्य सायास- अनायास चला आता है तब मुख्य विधा की महत्ता,रोचकता और प्रभाव भी बढ़ जाता है।विशेष तौर से उपन्यासों को ही देखलें।बहुत से उपन्यास तो अपने भीतर इतने बेहतर तरीके से व्यंग्य का निर्वाह करते हैं कि इन्हें 'व्यंग्य उपन्यास' कहने में कोई हिचक नहीं होती। मेरा मानना है कि अन्य विधाओं के बीच व्यंग्य की उस्थिति तब बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

व्यंग्य कविताओं में मैं यदि लोकप्रिय मंचों पर पढ़ी जाने वाली ठहाका कविताओं को छोड़कर बात करूं तो ऐसी ज्यादातर समकालीन सार्थक कवितायें जो विसंगतियों के खिलाफ और जनोन्मुखी उद्देश्यों को लेकर लिखी जाती रहीं हैं,उनमें व्यंजना,कटाक्ष और व्यंग्य अंतर्धारा की तरह प्रवाहित होता ही है।व्यंग्य की उपस्थिति  उन कविताओं को बहुत महत्वपूर्ण और सम्मानजनक बना देती हैं।

केवल अखबारी कॉलोमों में निश्चित शब्द सीमा में प्रकाशित होने वाले तथाकथित व्यंग्यों पर अभी कतई आश्वस्ती से कहा जा सकता कि वहां व्यंग्य बेहतर स्थिति में है।मैं उन्हें किसी व्यंग्य  का मात्र एक 'बीज' भर स्वीकार कर उस लेखन को व्यंग्यकार का रियाज  या अभ्यास ही कहूंगा,वह रचनाकार की फाइनल प्रस्तुति कम ही होती है।

व्यंग्य में जो उपलब्धि और अब तक जो हासिल है वह निसंदेह व्यंग्य लेखकों के उपन्यास,कहानियां और प्रहसन ही हैं जो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। परसाई जी, शरद जोशी जी जैसे कुछ ही स्तंभकार हैं जिन्होंने इन विधाओं के साथ शानदार कॉलम और निबंध लेखन किया और व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलवाई।ज्ञान चतुर्वेदी इसी कार्य को आगे बढ़ाते रहे हैं।

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2.नये समय के नये सवालों का सामना करते हुए व्यंग्य का हस्तक्षेप

यह केवल व्यंग्य में ही विचारणीय नहीं है,बल्कि हरेक विधा में विमर्श के योग्य बिंदु है। सार्थक लेखन की तो यह अनिवार्यता ही होना चाहिए की वह अपने समय के सवालों, चुनौतियों के सन्दर्भों को साथ लेकर चले। व्यंग्य में तो यह और भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।जिस दौर में टेक्नोलॉजी का विकास हो गया हो, स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया हो।कोई व्यंग्यकार पत्नी द्वारा बेलन से पति की खोपडिया तोड़ डालने जैसे विषयों पर कलम घिस रहा हो, उसे कैसे मान्यता दी जानी चाहिए।यह एक मात्र उदाहरण है,ऐसे कई प्रसंग और विषय दिख जाते हैं जो व्यंग्य को बहुत पीछे ढकेल देने का काम करते हैं।

भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद समाज में कई बदलाव हुए है। पाखण्ड,धूर्तताओं ,चालाकियां और सांस्कृतिक प्रदूषण के आगमन के साथ समाज का  नैतिक अवमूल्यन हुआ है। बाजारवाद ने हरेक वस्तु को बिकाऊ, यहां तक कि देह,आत्मा और मूल्यों तक की बोलियां लग जाने को अभिशप्त किया है।

परिवारों में रिश्तों की मधुरता और सम्मान के साथ छोटे-बड़ों के बीच का कोमल और संवेदन सूत्र टूटने लगा है। घर के बुजुर्ग हाशिये पर हैं।

दुनिया को जीत लेने की किसी शहंशाह की ख्वाहिश की तरह राजनीति के नायक-महानायक किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई देते हैं। सत्ता सुख की खातिर अपने पितृ दलों को डूबते जहाज की तरह कभी भी त्याग देने में नेताओं,प्रतिनिधियों को कोई परहेज नहीं होता। असहमति किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं। आश्वासन और विश्वास जुमलों की तरह इस्तेमाल हो रहे हों।

हिंदीभाषा और देवनागरी लिपि को नष्ट भ्रष्ट करने में उन्ही संस्थानों और अखबारों की मुख्य भूमिका दिखाई देती है जिन पर उनके संरक्षण की उम्मीद लगी रही हो।
नए समय के बहुत से नए सवाल हैं,जिन पर गंभीरता से व्यंग्य लिखे जाना चाहिए। यह समय रम्य रचनाओं और संपादकीय टिप्पणियों से कुछ आगे की अपेक्षा व्यंग्यकारों से करता है।

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3 अतिप्रकाशन से रचनात्मक व्यंग्य को लाभ या हानि

इस बिंदु के भी दो विस्तार हो सकते हैं।
पहला- किसी एक रचनाकार का अति प्रकाशन।
दूसरा- किसी पत्र-पत्रिका में व्यंग्य रचनाओं का अति प्रकाशन।

किसी एक व्यंग्यकार के अति प्रकाशन से जोड़कर देखें तो यह रचनाकार की गंभीरता और समझ पर निर्भर करता है। अति प्रकाशन के हर कदम पर उसे अपने लेखन को संवारने और खुद के व्यंग्यकार को विकसित और बेहतर बनाने का अवसर देता है।यदि वह आगे बढ़ता है तो व्यंग्य में भी नए प्रयोग करेगा। भाषा में शैली में कुछ नया देगा।इस क्रम में व्यंग्य विधा को लाभ ही होता है।

लेकिन जब अति प्रकाशन बस नियमित सामग्री उपलब्ध कराने भर से है तो फिर वहां किसी ख़ास लाभ की उम्मीद नहीं की जा सकती।
दूसरी ओर पत्र पत्रिकाओं में निश्चित ही व्यंग्य के सीमित लेकिन सार्थक प्रकाशन में ही विधा का लाभ निहित है। हाँ, केवल व्यंग्य को समर्पित पत्रिकाएं विधा पर नियमित विमर्श से लाभकारी सिद्ध होती रही हैं। इसमें व्यंग्य का प्रकाशन कभी भी सीमा में नहीं बांधा जा सकता।

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4.बहुतेरी बहसों गोष्ठियों वक्तव्यों यात्राओं से व्यंग्य में गुणात्मक वृद्धि

मेरा मानना है कि व्यंग्य के विकास और विधा के अस्तित्व और नए रचनाकाओं के प्रोत्साहन के लिए गोष्ठियों,वक्तव्यों का आयोजन होते रहना चाहिए।इनसे यदि एक दो रचनाकारों में भी यदि गुणातमक परिवर्तन हो जाता है तो वह विधा के हित में है।

यात्राओं में समानधर्मा व्यक्तियों को एक दिशा में सोचने विचारने का लगातार अवसर मिलता है,इसे सकारात्मक बिंदुओं पर केंद्रित रखा जाए तो लाभ हो न हो, विधा के लिए कोई नुक्सान भी सम्भव नहीं है।

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5.समकालीन व्यंग्य में राजनीतिक व सामाजिक विवेक

दरअसल हर कथन एक राजनीतिक स्टेटमेंट होता है। चुनावी राजनीति से इस बात की तस्दीक कृपया न करें। 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है? यह एक जरूरी प्रश्न है।रचनाकार की अन्ततः एक दृष्टि और पक्षधरता का होना उसके लेखन को एक पहचान देता है। इसके साथ साथ उसका सामाजिक विवेक भी चलता है।वस्तुतः यही विवेक रचनाकार की पक्षधरता और राजनीतिक दृष्टि का निर्धारक भी होता है।
व्यंग्य लेखन में भाषा और शैली में चुटकियां,विट, हास्य,आदि भले ही चलते रहें, विषयवस्तु के निर्वाह में रचनाकार का सामाजिक विवेक और उसकी राजनीतिक चेतना जाहिर हो ही जाती है। परसाई जी ,शरद जोशी से लेकर आज के हमारे वरिष्ठ व्यंग्यकारों की रचनाओं को पढ़ने के बाद उनके सामाजिक सरोकार और पक्षधरता को आसानी से समझा जा सकता है।
अपने समय की विसंगतियों पर रचनाकारों को व्यंग्य लिखने में यही चेतना बहुत मदद करती है और रचना को श्रेष्ठ बना देती है। राजनीतिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक विवेक से दिशा प्राप्त करने वाला लेखक  सचमुच महत्वपूर्ण व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित कर लेता है।
दुःख इस बात का है कि समकालीन व्यंग्य लेखन में कुछ को छोड़कर ऐसे व्यंग्यकारों की संख्या बहुत कम नजर आती है जो अपनी रचनाओं में चेतना संपन्न दिखाई देते हों।

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6.युवा व्यंग्यकारों की सक्रियता और सार्थकता

वर्तमान समय युवा व्यंग्यकारों के लिए किसी स्वर्णकाल से कम नहीं है। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखन के लिए भरपूर अवसर उपलब्ध हैं।
इतने नए लेखक व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय हैं जितने कभी नहीं रहे। विषयों की कोई कमी नहीं है।तात्कालिक सन्दर्भों पर रोचक आलेखों की भारी मांग है। लिखने वाले भी कम नहीं है। सक्रियता का पैमाना तो इतना व्यापक है कि कई बार एक ही तात्कालिक विषय पर अनेक लेख संपादक के पास एक साथ पहुँच जाते हैं।मुसीबत खड़ी हो जाती है उसके सामने कौनसी रचना ,किसकी रचना का उपयोग करे।
जिस अनुपात में युवा रचनाकारों की सक्रियता दिखती है उतनी व्यंग्य की गुणवत्ता में अपेक्षित सार्थकता महसूस नहीं की जा सकती। एक ही लेख कई-कई अखबारों में प्रकाशन के बावजूद ऐसा लगता ही नहीं कि दोबारा पढ़ा जा रहा है। क्योंकि उनमें कोई एक बात भी या एक पञ्च या व्यंग्योक्ति ऐसी नहीं होती कि उसे याद रखा जा सके।अविस्मरणीय हो जाए। लेकिन यह भी सच है कि इसी के चलते कुछ प्रतिभावान व्यंग्य लेखक निकल कर आ रहे हैं,जो बहुत आश्वस्त करते हैं।
जिन पर नाज किया जा सकता है।


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7.व्यंग्य में आलोचना की स्थिति

मुझे लगता है व्यंग्य में आलोचना उतनी परिपक्व नहीं हो पाई है जितनी कविता के क्षेत्र में उसने स्थान बनाया है।
जो व्यंग्य लिख रहा है वही उसकी समालोचना बल्कि यो कहें मात्र पुस्तक समीक्षा कर रहा है।व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र या आलोचना के सन्दर्भ में अभी गंभीर प्रयास होना बाकी है।

डॉ प्रेम जनमेजय,श्री सुभाष चन्दर, आदि ने कुछ प्रयास जरूर किये लेकिन उतना पर्याप्त नहीं माना जा सकता। समकालीन व्यंग्य लेखन में गंभीरता से सक्रीय और चर्चित व्यंग्यकार,संपादक श्री सुशील सिद्धार्थ जरूर इस दिशा में संकल्पित हुए हैं।कुछ योजनाएं भी उन्होंने बनाई है। उम्मीद है यदि सभी से अपेक्षित सहयोग मिल पाया तो अब तेजी से आलोचना और व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र के लिए काम जमीन पर दिखाई दे सके।

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8.वर्तमान व्यंग्य की भाषा में व्यंजना और सपाटबयानी

भाषा के बगैर हम किसी भी विधा में कैसी भी रचना की कल्पना नहीं कर सकते। और जब भाषा के लिए विचार करते हैं  तो'शब्द शक्तियों' की बात भी सहज है।
अभिधा,लक्षणा और व्यंजना ,ये तीन ऐसी शब्द शक्तियां हैं जिनमे हम अपने कथन को व्यक्त करते हैं। कोई भी संप्रेषण साधारणतः अभिधा के अंतर्गत होता है,सामान्य सूचनात्मक लेख, रिपोर्टिंग आदि जिनमें सीधे से विषयवस्तु अभिव्यक्त होती है, किंतु जब साहित्य की किसी विधा में रचना आती है तब अभिधा के अलावा,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग उसे प्रभावी बनाता है, गुणवत्ता में बेहतरी लाता है।
शब्द शक्तियों का उपयोग रचना को  दुरूह बनाकर उसमें बाधक नहीं बनता बल्कि उसे थोड़ा अधिक स्वीकार्य और रचना में कलात्मकता पैदा करता है। शरीर को सीधे सीधे व्यायाम के लिए हिलाने डुलाने से भी एक्सरसाइज तो होती है,मगर यदि संगीत के साथ एरोबिक्स अथवा योगाभ्यास किया जाए तो वह कुछ अधिक स्वीकार्य और अधिक करने के लिए इच्छा जाग्रत करने वाला हो जाता है।
व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना यही काम करते हैं। जिनके अभाव में कोई भी रचना 'सपाट बयानी' से आरोपित की जा सकती है। व्यंग्य तो वहां भी होगा मगर व्यंग्य का श्रृंगार और ख़ूबसूरती नहीं दिखाई देगी। व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियां व्यंग्य रचना की ताकत कही जा सकती है।
इन शक्तियों के कारण रचना की पठनीयता भी बढ़ जाती है और आगे पढ़ने को लालायित करती है।
सपाट बयानी में भी अंतर्निहित व्यंग्य हो सकता है लेकिन यह कौशल बिरलों के बस की बात होती है।

कुछ समकालीन व्यंग्य लेखों में विशेषतः कॉलम लेखन में प्रायः केवल रोचक प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी या थोड़ी सी चुटकी के साथ व्यंग्यकार विवरण अथवा विषयवस्तु का इतिहास बताता हुआ मार्गदर्शक बन बैठता है। 
इसे गंभीर व्यंग्य लेखन मानने में मुझे अभी संकोच ही होता है।इन्हें भले हो खूब लोकप्रियता प्राप्त हो जाती हो लेकिन व्यंग्य तो कदापि नहीं लगते।

इसके बावजूद  बहुत से युवा रचनाकार कोशिश जरूर करते हैं कि उनके आलेख में व्यंजन हो, व्यंग्य की उपस्थिति हो और वे पाठकों को उद्वेलित कर सकें।

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9.व्यंग्य से अपेक्षाएं...........

मेरे मत से तो व्यंग्य का उद्देश्य ही विसंगतियों,विडंबनाओं पर प्रहार के साथ ,समाज की बेहतरी के लिए संकेत करना होता है।
बाकी इस हेतु के लिए उसके अलग प्रारूप और शैलियां विकसित की जा सकती है। जिसमें यह भी कि पाठक थोड़ा सा मुस्कुराए, दुःख में विह्वल भी हो जाए, करुणा का संचार हो या खिलखिला पड़े। अन्याय और असत्य के प्रति लड़ने के लिए वातावरण और मानस तैयार कर सके। इतनी अपेक्षा तो व्यंग्य से होनी ही चाहिए।


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ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर- 452018


Monday, September 26, 2016

व्यंग्य में पठनीयता

विमर्श
व्यंग्य में  पठनीयता 
ब्रजेश कानूनगो

1 साहित्य का पाठ

जब भी हम कुछ पढ़ते हैं, उसका आनन्द लेते हैं तब क्या सचमुच उस पढ़े जाने को 'पाठ' कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा चली आ रही परम्परा के अनुसार किसी 'चालीसा' का पाठ करना शुरू करता है।एक छोटी सी पोथी से शुरू करता है। पूरी किताब सहजता से पढ़ डालता है। शब्द शब्द उसे आनन्द से भर देते हैं।शब्दों का संगीत लय सहित गूंजने लगता है। यहां भी पठनीयता तो है मगर क्या यहां सचमुच रचना का पाठ हुआ?

एक मित्र 150 पेजों की किताब मात्र 1 घंटे में पढ़ डालते हैं,वहीँ एक मित्र उसके लिए 1 सप्ताह लेते हैं।किताब वही है, लेकिन उसके पाठ में लगने वाला समय पाठक के ऊपर निर्भर है।पहले मित्र के लिए किताब इतनी पठनीय है कि तुरन्त ग्रहण हो जाती है जबकि दूसरे पाठक तक पहुँचने में ज्यादा समय लेती है।यहां पठनीयता तो वही है,पाठक की ग्रहण क्षमता बदल गयी है।

पठनीयता को भाषिक प्रवाह की तरह देखें तो जैसे कोई चिकनी सड़क की सहजता से मुकाम तक पहुंचा देने की खासियत। लेकिन क्या उस सड़क में यात्रा का रोमांच है? कार के शीशों पर परदे चढा लेने से यात्रा के सुन्दर दृश्य विलुप्त नहीं हो जाते हैं। जो यात्रा दुर्गम अनुभवों के लिए ही की जा रही होगी तो सफर में दचके तो लगेंगे ही। पहाड़ के शिखर को छूने को निकले पाठक को अपने साधन भी थोड़े जुटाना ही होंगें।

व्यंग्य की पठनीयता को चालीसा की पठनीयता से अलग रखकर विचार करना जरूरी होगा।

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2 पठनीयता और शब्द शक्ति

देखा जाए तो पठनीयता का एक सम्बन्ध ख़ास विधा से भी जुड़ता है। यह भी तय है कि बगैर किसी भाषा के हम किसी भी विधा में कैसी भी रचना की कल्पना नहीं कर सकते। और जब भाषा के लिए विचार करते हैं  तो 'शब्द शक्तियों' की बात भी सहज है।

अभिधा,लक्षणा और व्यंजना ,ये तीन ऐसी शब्द शक्तियां हैं जिनमे हम अपने कथन को व्यक्त करते हैं। कोई भी संप्रेषण साधारणतः अभिधा के अंतर्गत होता है, सामान्य सूचनात्मक लेख, रिपोर्टिंग आदि जिनमें सीधे से विषयवस्तु अभिव्यक्त होती है, किंतु जब साहित्य की किसी विधा में रचना आती है तब अभिधा के अलावा,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का विवेकपूर्ण  उपयोग उसे प्रभावी बनाता है, गुणवत्ता में बेहतरी लाता है।

शब्द शक्तियों का उपयोग रचना को  दुरूह बनाकर उसमें बाधक नहीं बनता बल्कि उसे थोड़ा अधिक स्वीकार्य और रचना में कलात्मकता पैदा करता है। शरीर को सीधे सीधे व्यायाम के लिए हिलाने डुलाने से भी एक्सरसाइज तो होती है,मगर यदि संगीत के साथ एरोबिक्स अथवा योगाभ्यास किया जाए तो वह कुछ अधिक स्वीकार्य और अधिक करने के लिए इच्छा जाग्रत करने वाला हो जाता है।
व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना यही काम करते हैं। जिनके अभाव में कोई भी रचना 'सपाट बयानी' से आरोपित की जा सकती है। व्यंग्य तो वहां भी होगा मगर व्यंग्य का श्रृंगार और ख़ूबसूरती नहीं दिखाई देगी। व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियां व्यंग्य रचना की ताकत कही जा सकती है।
इन शक्तियों के कारण रचना की पठनीयता बढ़ जाती है और आगे पढ़ने को लालायित करती है।

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3 पठनीयता एक निर्बाध सफ़र

कई बार किसी व्यंग्य लेख को पढ़ते हुए कुछ अवरोध या स्पीडब्रेकर भी महसूस किये जा सकते हैं। दरअसल, रचनाकार जब किसी एक विषय पर लिखना चाहता है तो उसका यह प्रयास होता है कि उस विषय से सम्बंधित सारे मुद्दों और पक्षों को वह अपने आलेख में समेट ले।

लेख के हर पेरा में वह कुछ कहता भी है लेकिन अगले पेरा में प्रवेश के साथ ही पाठक भौचक्क रह जाता है कि उसकी बात कहाँ से जम्प लगाती कहाँ आ पहुंची। अयोध्या से सीधे अलीगढ़ पहुँच जाना,कुछ अटपटा सा अनुभव हो जाता है पाठक के लिए। इसे 'कहे खेत की और सुने खलिहान की' जैसा भी माना जा सकता है। खेत से खलिहान तक जो पगडंडी जाती है,उस पर से न गुजरते हुए लेखक लंबी कूद लगा देता है,और सारी  पठनीयता धराशायी हो जाती है।

इसमें लेखक को विषय वस्तु के विभिन्न दृश्यों और पहलुओं के बीच खूबसूरत कपलिंग करना आना चाहिए। एक पटरी से दूसरी पटरी पर आते समय कोण की बजाय कर्व का प्रयोग करना बेहतर हो सकता है। कुशल व्यंग्यकार अपनी रचना की  रेलगाड़ी को आहिस्ता आहिस्ता दिशा परिवर्तित करवाता रहता है। और कुछ ख़ास और अनुभवी लेखक तो पठनीयता बनाये रखने में इतने सिद्धहस्त हो जाते हैं कि पूर्व दिशा में जा रही रेलगाड़ी जब गंतव्य पर रुकती है तो उसका इंजिन पश्चिम की ओर हो जाता है। पाठक को अहसास ही नहीं हो पाता कि दिशा ठीक विपरीत हो चुकी है। कुशल व्यंग्यकार की रचना में पठनीयता कुछ ऐसी ही होती है।

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4 सामयिक सन्दर्भ और पठनीयता

व्यंग्य रचनाओं में इन दिनों सामयिक घटनाओं और प्रसंगों का सन्दर्भ लेने का चलन बढ़ा है। विशेषतः अखबारों में प्रकाशित होनेवाले दैनिक कॉलोमों में ऐसा  कटाक्षपूर्ण या व्यंग्यात्मक अथवा परिहास सहजता से देखा जा सकता है। अखबारों के पाठकों के बीच ये काफी रूचि से पढ़े भी जाते हैं। कुछ तो सबसे पहले इन्हें ही पढ़ना पसंद करते हैं। हर अखबार ऐसे कॉलम इन दिनों जारी रखे है। इस व्यावसायिक समय में साहित्य पृष्ठ भले ही नदारद होते जा रहे हों मगर इन लघु टिप्पणियों की मांग बरकरार है।

इसका एक अर्थ यह भी है कि सामयिक व्यंग्य लेखों की पठनीयता उनके तात्कालिक सन्दर्भों की वजह से अधिक हैं।यह भी सही है कि इनका पाठक भी एक औसत आम पाठक है। कविता की तरह यह तंज यहां लागू नहीं होता कि 'कवि ही कविता पढ़ते हैं और कवि ही कविता लिखते हैं'। यहां इन लेखों को साहित्यकार और व्यंग्यकार पढ़ने में रूचि उतना नहीं लेता जितना उस अखबार का नियमित पाठक वर्ग।

दो बात मुझे इस स्थिति से स्पष्ट होती है एक यह कि सामयिक सन्दर्भों और विषयों पर लिखे गए की पठनीयता आम पाठकों में ज्यादा होती है। कुछ पाठक जो प्रबुद्धता की पैमाने में थोड़े ऊपर उठ जाते हैं, वे इन लेखों में पठनीयता होने के बावजूद बगैर पढ़े छोड़ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि इनका जीवन उतना ही प्रायः रह पाता है जितना किसी अखबार के उस दिन के अंक  का अस्तित्व।

मुझे लगता है एक विवेकी रचनाकार ने ऐसे आलेखों को  'रचना बीज'  की तरह लेकर लेख तो अवश्य लिख लेना चाहिए, छपवा भी लेना चाहिए लेकिन एक अरसा बाद, इनकी पुनः खैर खबर लेना उसके लिए लाभदायक हो सकता है। तात्कालिक घटनाक्रम के आतंक और छपास की आस से मुक्त संपादन और घटना के पीछे की 'प्रवत्ति' को विषय बनाकर नया व्यंग्य तैयार किया जा सकता है, जिसकी उम्र और पठनीयता मुझे लगता है दोनों बेहतर और सर्वकालिक होगी।

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5 पठनीयता में भाषिक प्रयोग

एक प्रश्न अक्सर व्यंग्य में क्षेत्रीय और प्रचलित शब्दों के उपयोग को लेकर भी उठता रहता है। भाषिक प्रयोग किसी भी रचना के सौंदर्य में वृद्धि ही करते हैं। शब्दों के व्यंजनात्मक प्रयोग से रचना खिल उठती है। शब्द फिर क्षेत्रीय भाषा का ही क्यों न हो। इधर तो ठेठ 'इंदौरी' बोली के चौराहे के शब्दों का खूब मजेदार उपयोग होने लगा है। 'भिया', ' क्या केरिये हो' से लेकर 'पेलवान' और 'छरै'  भी खूब चल निकला है। सवाल अंततः विषयवस्तु की गुणवत्ता का ही है। मुम्बइया जुबान में कई बेहतर प्रयोग हुए हैं। कई लेखों और रचनाओं में तथा कथित गालियों का प्रयोग तक होता रहा है।लेकिन वहां केवल वही तो नहीं होता। शुरू में अटपटे लग सकते हैं बोलियों के शब्द,लेकिन फिर तो प्रयोग होते होते सब 'सायोनारा' हो ही जाता है।

मुहावरों और लोकोक्तियों से भी पढ़ने वालों में भरपूर रूचि पैदा होती है। खूब प्रयोग किया गया है इनका। कहावतों का तेल निकालकर भी व्यंग्य रचनाएं मैं खुद लिखता रहा हूँ। मगर अब नए मुहावरे गढ़ने का समय आ गया है।
'गुस्से में आदमी कागज फाड़ता है', 'दाढ़ी के पीछे क्या है', 'हर बात जुमला नहीं होती,' जैसे प्रयोग हुए भी हैं। ओल्ड इस गोल्ड तो होता है मगर नई घडावन और कारीगरी भी जरूरी होगी। बशर्ते वह गहने पर  खूबसूरत लगे। प्रयोग के पूर्व लेखक ही रचना का पहला पाठक होता है,जरा भी कोई बात उसे भद्दा बनाती हो,उसका मोह त्याग कर निर्ममता से उसे हटा दिया जाए  तो पठनीयता पर शायद  कोई ख़ास असर नहीं होगा।

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ब्रजेश कानूनगो
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