Wednesday, April 30, 2014

इस गणराज्य में - वर्तमान और अतीत के बीच पुल बनाती कविताएँ

समीक्षा
इस गणराज्य में (कविता-संग्रह) 

वर्तमान और अतीत के बीच पुल बनाती कविताएँ
राकेश शर्मा

जब कविता शौकिया और कवि जैसा दिखने के लिए लिखी जाती है तब उसकी तहसीर निरर्थक और निरुद्देश्य होती है। जब कोई कविता कवि की बेबसी और बेचैनी के कारण सृजित होती है तब वह पाठक के मन और प्राणों को स्पन्दित करती है। ब्रजेश कानूनगो के लिए कविता लिखना इसी बेबसी और बेचैनी का परिणाम मालूम पडता है। उनके हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘इस गणराज्य में’ की कविताओं को पढते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कवि ने इन विचारों को यदि कागज पर न उतारा होता तो इनका बोझ कवि के मानस पर स्थायी रूप से प्रभाव जमा लेता। कवि ब्रजेश के लिए कविता जीवित बने रहने के लिए एक उपाय और जरूरी उपकरण की तरह प्रतीत होती है। कवि के अपने व्यक्तित्व की भरपूर परछाई इन कविताओं में नजर आती हैं। कोई भी रचना उसके रचनाकार के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब होती है। कविताओं को पढते हुए यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि कवि ब्रजेश इस संसार को कैसे देखते हैं और उसके मौजूदा परिवेश में क्या परिवर्तन चाहते हैं।
कवि के मानस में बचपन और गुजरे समय  की मधुर यादें बहुत मजबूती के साथ चस्पा हैं। अतीत के खंडहरों में बैठा उनका कवि मन वहाँ जमी धूल और धुन्ध के बीच बीते समय की तस्वीरें देखता रहता है। हर दिन कवि एक अच्छी सुबह की प्रतीक्षा करता दिखाई देता है। कविता का जन्म कवि के मन में किसी भूकम्पीय हलचल की तरह होता है---

भूकम्प के बाद एक और भूकम्प आता है हमारे अन्दर/विश्वास की चटटाने बदलती हैं अपना स्थान/ खिसकने लगतीं हैं विचारों की आंतरिक प्लेंटें/ मन के महासागर में उमडती हैं संवेदनाओं की सुनामीं लहरें/ तब होता है जन्म कविता का।   (भूकम्प के बाद)

इन कविताओं में मौजूद स्मृतियाँ और अतीत कवि के लिए एक धरोहर है। वह अपने इतिहास से वर्तमान को बाँधे रखना चाहता है। ये कविताएँ वर्तमान और अतीत के बीच एक खूबसूरत सेतु बनाती हैं,जिस से गुजर कर पाठक यह जानने समझने में समर्थ होते हैं कि जिस समाज और समय से वे आज रूबरू हो रहे हैं उसका पुराना चेहरा कैसा हुआ करता था, देखिए इन पंक्तियों में –

धराशायी मकान की भस्म पर खडी हो गई है ऊंची इमारत/जिसकी ओट में छुप गया है नीला कैनवास/पतंग के रंगों से बनते थे जहाँ /स्मृतियों के अल्हड चित्र/ वैसा ही हो गया है मेरा मुहल्ला/जैसे कोई कहे कितना अलग है तुम्हारा छोटा बेटा।  (मेरा मुहल्ला)

यह कविता हर पाठक के साथ खडी दिखाई देती है। हम सब का अतीत इस तस्वीर में कैद है। कोई विकासवादी और व्यावहारिक व्यक्ति यह प्रश्न उठा सकता है कि खंडहरों  के बहुमंजिला ईमारतों में बदल जाना तो विकास का प्रतीक है, शुभ संकेत है। लेकिन यहाँ कवि की चिंता उस विकास पर है जिसने हमारे मूल्यों और सामाजिक चेतना की बलि लेते हुए प्रगति का शंखनाद किया है। इस दृश्य से पाठकों को रूबरू कराना कवि का अभीष्ठ भी है।

जड और चेतन , मनुष्य और जीव जंतु, सभी के सामंजस्य से यह दुनिया कायम है। कविता ही यह ठिकाना है जहाँ जड चेतन का भेद समाप्त हो जाता है। जहाँ भावनाओं का मानवीकरण सम्भव है ,जड में जान फूंकी जा सकती है। ब्रजेश की कविताओं में यह साकार हुआ है।

कांपते हैं जब सूरज के हाथ-पाँव/ कुहरे को भेदता हुआ/ठंडी हवा के साथ आता है मजा।
उड जाता है न जाने कहाँ/गुलाबी अनंत में चिडियों के साथ/छुप जाता है किसी बछडे की तरह/ घर लौटते रेवड में/ उडती हुई धूल के बीच दिखाई देती है/ मजे की झलक। 
(मजे के साथ)

आज जब मानवीय सम्बन्ध भी टूटने की कगार पर हैं ऐसे में यह संकल्पना कि जीव-जंतु भी हमारी जीवन यात्रा के सहयात्री हैं,बहुत सार्थक सन्देश है। मनुष्य के होने और बने रहने में प्रकृति,पेड-पौधों की अपनी भूमिका है। ब्रजेश की कविता इस बात को समझती है और समरसता का भाव-बोध कराती है। देखें-

जिस घर में रहता हूँ/कैसे कहूँ कि अपना है।
चीटियाँ,कीट-पतंगे और छिपकलियाँ भी रहती हैं यहाँ बडे मजों से/
उधर कुछ चूहों ने बनाया है अपना बसेरा/ट्यूब लाइट की ओट में पल रहा है चिडियों का परिवार।  (कैसे कहूँ कि घर अपना है)

ब्रजेश की कविताओं का दायरा घर-परिवार से लेकर वैश्विक चिंताओं तक विस्तृत है। किसान के जीवन में सोयाबीन की फसल की भूमिका, ‘क्विज’ जैसे कार्यक्रमों से करोडों के पुरस्कारों के मोह में जीवन की सच्चाइयों पर पर्दा पडना , बेजुबान जानवर पर कविता ‘जिप्सी’ ,व्रत करती स्त्री, राष्ट्रीय शोक की औपचारिकता, घर-ग्रहस्थी की चिंताओं के साथ स्त्री का बाहर निकलना आदि विषयों पर मर्मस्पर्शी कविताएँ इस संकलन में हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।
कवि के पास अपनी बात को पाठक तक पहुंचाने का कविता का एक सरल और सर्वग्राही मुहावरा है। भाषा बहुत सरल और सहज है। ये पंक्तियां देखिए-

मैं मिला नही तुमसे मदर टेरेसा/लेकिन जानता हूँ/ तुम्हारी साडी की किनारी में बहा करती थी/ मानवता की नदी।  (मदर टेरेसा)

यहाँ मदर टेरेसा की साडी की नीली किनारी को कवि ने नदी की बहती जलधारा में रूपायत किया है। मदर टेरेसा का जीवन ही नदी की तरह जीवन-धर्म पर बडा उपकार है। यह सन्देश कवि ने सहज ही पाठक तक पहुंचा दिया है।

कविता का काम महज नारेबाजी करना नही होता है। वह एक हथियार भी नही हो सकती,कविता एक सुई की तरह है जो फटे हुऎ हमारे स्मृति के केनवास को धीरे-धीरे सिलने का काम भी करती रहती है। जिससे बीत गया समय, धुन्धली हो चुकीं यादें फिर से साकार हो जाती हैं। कविताएँ इस सन्दर्भ में अपना यह कर्म करती दिखाई देती हैं। ‘रेडियो की स्मृति’, ‘सभागार’, जैसी कई कविताएँ अनायास हमारे अन्धेरे कोनों को प्रकाश से भर देतीं हैं। वहाँ के दृश्य पाठक के मन में बहुत मोहक रूप में उभरते हैं और असीम सुकून और आनन्द से भर देते हैं।

अनेक कविताएँ हमारे समय की विद्रूपताओं और दुखद सच्चाइयों पर व्यंग्य करती हैं। ‘इस गणराज्य में’,प्लास्टिक के पेड’, ‘ग्लोबल प्रोडक्ट’, ‘मनीप्लांट की छाया’, ‘लाल बारिश’ ‘रेल गाडी के वातानुकूलित डिब्बे में बैठे लोग’ आदि कविताएँ इसी श्रेणी में रखीं जा सकतीं हैं। कवि की विचारधारा से पाठक का आमना-सामना भी यहीं होता है। कविता का काम भी यही है कि वह पाठक के मानसरोवर की प्रशांत जल-राशि को धीरे से आन्दोलित कर दे जिससे ठहरे हुए जल में तरंगें पैदा हों और अपने समय को समझने के लिए कई चित्र उसमें बनें-बिगडें। ये कविताएँ हमारे विचारों को आन्दोलित करने का ये काम बखूबी करने का प्रयास करती हैं।  

पुस्तक-इस गणराज्य में।
मूल्य-रु.100/
कवि-ब्रजेश कानूनगो
प्रकाशक- दखल प्रकाशन
104,नवनीति सोसायटी
प्लॉट न.51,आई.पी.एक्सटेंशन
पटपडगंज
दिल्ली-110092

समीक्षक-
राकेश शर्मा
’मानस निलयम’
एम-2, वीणा नगर
इन्दौर-452011 



Thursday, April 24, 2014

अच्छे दिनों की पहली सुबह

व्यंग्य
अच्छे दिनों की पहली सुबह
ब्रजेश कानूनगो

शयन कक्ष मे अवस्थित पूर्व दिशा की खिडकी शायद रात को खुली रह गई होगी अथवा पत्नी ने जल्दी उठकर खोल दी होगी। यकायक सुबह-सुबह की पहली किरण और ताजी हवा का झोंका आया तो मेरी नींद खुल गई है। अब तक होता यह आया था कि पश्चिम दिशा की खिडकी जिसका एक कांच टूटा हुआ था, उसमें से जब धूप आकर तंग करने लगती तब बिस्तर छोडना ही पडता था। आज ही कुछ ऐसा हुआ है कि पश्चिम से उगने वाले सूर्य ने युगों बाद पूर्व दिशा से अपनी दैनिक यात्रा का शुभारम्भ किया है। लगता है अच्छे दिन की शुरुआत ऐसे ही होती है।

रोमांचित होकर मैं बहुत ही कुतुहल के साथ खिडकी के बाहर निहारने लगा हूँ। अहा! अद्भुत! सब कुछ बदला हुआ है। राजा रवि वर्मा के चित्रों की तरह खिडकी के पार कैनवास पर रंगों का जैसे इन्द्रधनुष बिखरा पडा है। सुमित्रानन्दन पंत की कविताएँ बाहर प्रकृति के साथ अठखेलियाँ करती नजर आ रहीं हैं। गन्दी बस्ती की झुग्गियों के रहवासियों की दिनचर्या और नाले की दुर्गन्ध के दुष्प्रभावों से दूर रहने की खातिर अक्सर बन्द रहने वाली खिडकी जैसे आज किसी मायालोक का प्रवेश द्वार बन गई है।

रातों-रात जैसे सुदामा के दिन और उनकी कुटिया बदल गए थे वैसे ही झुग्गी-झोपडियों के स्थान पर बहुत खूबसूरत और साफ सुथरी टॉउनशिप की अटटालिकाएँ नजर आ रहीं हैं। सामने बागीचा है और उसमें वे सब पेड-पौधे लहलहा रहे हैं जो अक्सर कविताओं में प्रेम और रोमांस से हमें सराबोर कर देते हैं। खिडकी के पास से आम के वृक्ष की टहनी गुजर रही है, जिस पर दो प्रेम पक्षी किलोल रत हैं.. हरे हरे पत्तों के बीच से सूरज की रश्मियाँ छन छनकर शयन कक्ष की दीवारों पर मानों आँख मिचोनी खेल रही हैं।

अरे! यह क्या..! किसने किया यह शंखनाद, मन्दिर में आरती का स्वर गूंजने लगा है..। जरा ध्यान से सुनों... किसी मज्जिद से अजान के स्वर भी हवा में तैरने लगे हैं..। आज कुछ अलग हैं ये रोज की आवाजें..। ओह..कैसा सुखद लग रहा है यह संगीत, बिल्कुल स्वाभाविक। आज कबीर को ठेंगा दिखाते लाउडस्पीकरों से ईश्वर को नही पुकारा जा रहा है। अब समझ लिया गया है शायद कि परवरदिगार बिन कानों के सुनने की क्षमता रखता है।

यह कैसी पदचाप सुनाई दे रही है नीचे मार्ग पर..? शायद सज्जन लोग प्रभात फेरी पर निकले हैं। एक लय है एक गान है.. बहुत गर्वीला और अनुशासित है यह जत्था। आजादी के बाद जैसे स्वतंत्रता सेनानियों का कोई जुलूस निकल रहा हो। नई अट्टालिकाओं से पुष्प वर्षा की गई है अभी-अभी। सडक पर फूलों को रोन्दते हुए आगे निकल गया राष्ट्र्प्रेमियों का दल अपनी ध्वजा लहराते हुए।  ऐसा लगता है अन्य विचारप्रेमियों ने अपने को राष्ट्र्विरोधी मान लिया है और वे लोग दूसरे मुल्कों को कूच कर गए हैं, उन्हे पहले ही चेतावनी दी जा चुकी थी कि यहाँ केवल एक देश –एक विचार के लोग ही नागरिकता के अधिकारी होंगे। 

बाथरूम में शावर चल रहा है..मुझे यों लग रहा है जैसे कालिदास के नाटकों की नायिका किसी जलप्रपात की धारा में स्नानरत कोई श्लोक गुन-गुनाते हुए अपनी केशराशि को सम्भालने के यत्न में तल्लीन है। स्नानागार का दरवाजा खुलता है और आद्यस्नाता देवी शकुंतला बाहर निकलती है। उसकी कलाइयों में श्वेत मोगरे का गजरा है और हाथों में सुराही जैसा पात्र। लजाती मुस्कुराती कहती है- आर्य ! आज दफ्तर नही जाना है क्या? तिपाही पर रखी प्याली में केतली से चाय उंढेल कर वह लौट जाती है। आज भरत की पाठशाला में ‘सेव-टायगर’ पर लेक्चर होना है। उसे तैयार करके ठीक समय पर स्कूल भी तो भेजना है।
मैं बिस्तर से उठता हूँ और अच्छे दिन की पहली दोपहर और पहली शाम से रूबरू होने की तैयारी में जुट जाता हूँ। हर रात के बाद मेरा पहला अच्छा दिन हर रोज मेरी बाट जोहता रहता है।

ब्रजेश कानूनगो

503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-452018 

Monday, April 7, 2014

संस्थाओं का पर्यावरण प्रेम

लेख
संस्थाओं का पर्यावरण प्रेम
ब्रजेश कानूनगो

हमारे संस्थान के ‘डिस्कशन फोरम’ में पिछले दिनों एक सुझाव आया कि संस्थान के विभिन्न कार्यालयों और शाखाओं के परिसरों की खुली छतों पर अनाज के दाने और पानी रखा जाए,ताकि प्यासे पक्षी अपनी भूख-प्यास मिटा सकें।

फोरम के अनेक सदस्यों ने इस पर अपने विचार प्रकट किए। कुछ की चिन्ता थी कि ऐसा करने से छत से पक्षियों का मल और गन्दगी हटाने के लिए अलग से स्टॉफ की व्यवस्था करनी पडेगी। गन्दगी और दुर्गन्ध से पडोसियों को भी परेशानी होगी। एक व्यक्ति का विश्वास था कि पक्षियों को दाना-पानी देना बडा पुण्य का काम है, हो सकता है संस्थान की प्रगति में इससे परोक्ष लाभ मिले। किसी ने कहा कि श्राद्ध पक्ष में अब कौए भी प्रसाद ग्रहण करने छतों पर नही आते हैं। धरती और आकाश में पक्षी दिखाई ही नही देते तो फिर ऐसे प्रयासों का क्या औचित्य होगा। सीमेंट-कांक्रीट के बढते हुए जंगलों के बीच सचमुच अब पक्षियों की घटती संख्या चिंता का विषय है। जल,जंगल और जीव-जंतु का संतुलन पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण घटक होता है।

विकास के नाम पर महानगरों में बहुत कुछ हो रहा है और देखा-देखी छोटे शहरों और कस्बों में भी इसका अन्धानुकरण बिना सोचे-समझे किया जाने लगा है। गिरता भू-जल स्तर,ग्लोबल वार्मिंग,पशु-पक्षियों का लगातार कम होते जाना,पर्यावरण असंतुलन और मानसिक अवसाद जैसी विकृतियाँ प्रकृति के नियमों के विपरीत जा कर किए गए विकास का ही परिणाम हैं।
‘डिस्कशन फोरम’ के एक सदस्य के विचार ध्यान देने योग्य थे। उन्होने कहा कि कार्यालय परिसरों की छतों का इस्तेमाल बरसाती पानी को सहेजने के लिए किया जाना चाहिए। असामान्य और अनियमित मानसून के दौर में जब धरती के भीतर पानी का स्तर लगातार नीचे चला गया है तब रूफ वॉटर हार्वेस्टिंग के महत्व को स्वीकारना ही होगा। देश के सरकारी और संस्थागत दफतरों की इमारतों की छतों के पानी को जमीन के भीतर पहुँचाना अब अनिवार्य कर देना शायद एक सही निर्णय होगा। यह सही है कि नगर निगमों तथा ऐसी संस्थाओं द्वारा यद्यपि भवन निर्माण अनुमति देते समय पर्यावरण हितैषी ऐसी शर्तों का समावेश भी अब किया जाने लगा है। शहरों की आदर्श विकास योजनाओं में ‘ग्रीन-बेल्ट’ की व्यवस्था आवश्यक रूप से रखी जाती है, लेकिन जब उसके कार्यांवयन की बात आती है तो अनेक प्रभावशाली लोग अपने निजी,राजनीतिक अथवा आर्थिक लाभों के चलते हरियाली का हिस्सा कम करा देते हैं। अनियोजित कार्यपद्धति, विभिन्न एजेंसियों में समन्वय का अभाव तथा अतिक्रमणों के स्वार्थपूर्ण संरक्षण के कारण विकसित ग्रीन बेल्ट भी नष्ट होते देखे जा सकते हैं। दूसरी ओर तथाकथित हरियाली के नाम पर जो किया जाता है उसमें भी जल्दी बढने वाले, तुरंत दिखाई देने वाले,कम उम्र वाले पौधे लगाकर औपचारिकताएँ पूरी कर ली जाती हैं। हमारे यहाँ कहावत रही है-‘दादा पेड लगाता है और पोता फल खाता है’। आज तात्कालिक वाह-वाही प्राप्त करने की बजाए आनेवाली पीढी के हितों को ध्यान में रखकर घने,हरे-भरे,फलदार और लम्बीउम्र वाले पेड-पौधे लगाकर हरियाली का स्थायी इंतजाम किया जाना चाहिए।

एक बात और जो इन दिनों छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंच गई है, वह है सडकों का सीमेंटीकरण। यह सीमेंटीकरण सडकों तक रहे वहाँ तक तो ठीक है,लेकिन घरों और सडकों के बीच जो दो-चार फिट मिट्टीयुक्त भूमि बचती है उस पर भी टाइल्स लगाकर या सीमेंट लगवाकर बरसाती पानी को जमीन में पहुंचने से रोका जाने लगा है। अपने पैरों पर कुल्हाडी चलाना शायद इसी को कहते हैं। गर्मियों में बोरिंग सूख जाने का एक बडा कारण यह भी है कि बरसात का पानी जमीन के अन्दर नही जा कर सीमेंटीकरण के कारण शहर से दूर बह जाता है। होना तो यह चाहिए कि खुली भूमि पर सोक पिट बनाकर ऐसी व्यवस्था की जाए कि सडक पर बहता पानी रिसकर जमीन के भीतर पहुंच सके।
नागरिकों और सरकारों के अलावा कॉर्पोरेट तथा संस्थागत स्तरों पर भी अपने व्यावसायिक कार्यों के साथ-साथ पर्यावरण,प्रकृति और समाज के लिए सोचा जाना निश्चित ही अच्छा संकेत हो सकता है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-452018