Saturday, September 7, 2013

व्रत करती स्त्री

व्रत करती स्त्री

प्यासी रहती है दिनभर
और उडेल देती है ढेर सारा जल शिवलिंग के ऊपर

पत्थर पर न्यौछावर कर देती है जंगल की सारी वनस्पति

बनाकर मिट्टी का पुतला
नहला देती है उसे लाल पीले रंगों से

लपेटती जाती है सूत का लम्बा धागा
पुराने पीपल की छाती पर
करती है परिक्रमा पवित्र नदी की
और लगा लेती है चन्दन का लेप
पैरों के घावों पर

सरावलों में उगाकर हरे जवारे
प्रवाहित करती है सरोवर में उन्हे

क्षयित चन्द्रमा को चलनी की आड से निहारते हुए
पति के अक्षत जीवन की कामना करती है व्रत करती स्त्री

एक आबंध की खातिर
सम्बन्धों की बहुत बडी डोर बुन रही है

जैसे बाँध लेना चाहती है धरती-आकाश । 

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