Monday, May 27, 2013

माँई री मैं कापे लिखूँ....


व्यंग्य
माँई री मैं कापे लिखूँ....  
ब्रजेश कानूनगो

उसने अपने घर की सारी खिडकियाँ खोल रखी थीं, हवा का प्रवेश उसके कमरे में भरपूर हो रहा था,फिर भी बैचेनी जैसे कम होने का नाम ही नही ले रही थी। एक द्वन्द्व सा छिडा हुआ था भीतर। घर की खिडकियों के अलावा उसने अपने लेपटॉप में भी बहुत सारी विंडोस ओपन कर रखी थी। एक-दो में कुछ अखबारों के ‘ई’ संसकरण ,एक में ‘फेसबुक’ और एक में नया डाक्यूमेंट खुला हुआ था जिस पर वह  कभी कुछ टाइप करता तो कभी तुरंत उसे डिलिट भी कर देता था।

ऐसी स्थितियाँ  अक्सर उसके सामने आती रहती थीं,विशेषकर तब जब एक साथ दो-तीन ऐसे सामयिक विषय आ खडे होते थे जिन पर वह  अपनी ‘उलटबाँसी’ लिख देना चाहता है।
अखबारों के सम्पादकीय पेज पर ऐसी ‘तिरछी नजरों’और ‘चुटकियों’ की बडी माँग जो निकल आई है इन दिनों। बडी परेशानी तब होती है जब व्यंग्यकार के सामने ‘तोता’ और ‘मामा’ एक साथ चले आते हैं।  जरूरी नही कि तोते या मामा के आने से कोई ज्यादा कष्ट है। ‘हाथी’ और ‘ताउ’ भी आ सकते हैं यह तो एक उदाहरण मात्र है।

तोते पर तीर चलाएँ या मामा का शिकार करें। हाल यह हो जाता है कि जरा सी देर में देश भर के शिकारी तोते की पसलियाँ और मामा का मुरब्बा सम्पादक के पास पहँचा देते हैं। वह जमाना तो रहा नही कि पहले लिखेंगे,फिर टाइप करवाएंगे,फिर लिफाफा बनाकर डाकघर या कूरियर के हवाले करेंगे ,अब यदि वे ऐसा करेंगे तो वही होगा जो रामाजी के साथ हुआ था,लोग कहेंगे ही ‘रामाजी रैग्या ने रेल जाती री..’ इसलिए वे सबसे पहले रेल में चढना चाहते हैं।
अभी मामा भांजे और तोते से निपटते ही हैं कि संजयदत्त और श्रीसंत आ खडे हो जाते हैं। कहते हैं - लो हम आ गए,अब हम पर लिखो। व्यंग्यकार बडा परेशान है। माँई री मैं कापे लिखूँ..अपने जिया में..संजय और श्रीसंत..। 
बडी दुविधा आ खडी होती है स्तम्भकार के सामने। किस पर लिखे बल्कि पहले किस पर लिखे..संजय पर भी बहुत मसाला तैयार..और श्रीसंत भी अपना गाल आगे करने को तत्पर।  अब यदि संजय पर लिखने बैठते हैं और इसबीच जयपुर का कोई जाँबाज या इन्दौर के कोई भियाजी श्रीसंत पर अपना ई-मेल सेंड कर देते हैं तो फिर श्रीसंत के उनके आलेख का क्या होगा? आप जरा समझिए इस व्यंग्यकार की उहापोह को।

ऐसा कहानीकार या कवि के साथ कभी नही होता। कहानीकार किसी साध्वी और स्वामी की प्रेम कथा तत्काल लिखने की हडबडी में नही होता। स्वामी के सन्यास लेने और साध्वी के संसार में वापिस लौट आने तक वह प्रतीक्षा कर सकता है।  कवि चाहे जब ‘चिडिया’ या     ‘पत्थर की घट्टी’  पर कविता लिख सकता है। चिडिया के विलुप्त होने के बाद और पत्थर की घट्टी के पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के बाद भी कवि उसकी याद में गीत गा सकता है। व्यंग्यकार के पास यह अवसर नही है, यहाँ तो बडी हडबडी का माहौल बना हुआ है उसे तो अभी का अभी डिस्पेच करना है।  वरना कोई और अपना माल खपा देगा।
यह कितना अन्याय है इस बेचारे लेखक के साथ कि इतनी मेहनत और त्वरित लेखन के बावजूद उसका उचित मूल्यांकन नही हो पा रहा। कुछ उदार हृदय सम्पादक उसके लिखे पर थोडा-बहुत पत्रम-पुष्पम देते हैं तो ज्यादातर अखबार रचना प्रकाशित करके उसका सम्मान फेसबुकीय दोस्तों में बढवाने का पुनीत कार्य करते हैं। यह भी क्या कम है आज के समय में। वे चाहते तो उस स्पेस में कोई विज्ञापन लगाकर हजारों बना सकते हैं,फिर भी साहित्य के लिए उनका यह योगदान बना हुआ है,उसके लिए तो लेखक को उनका कृतज्ञ होना चाहिए।

बहरहाल, अखबारी व्यंग्य लेखक की अपनी परेशानियाँ होती हैं,जिनका मुकाबला उसे खुद ही करना होता है और वह करता भी है। देशभर के अखबारों के हृदयस्थल में जनरुचि के मुद्दों पर रोज प्रतिक्रिया देना कोई आसान काम भी नही है। इनका जुझारूपन प्रणम्य है। नमन करने योग्य है! इस जीव को हम प्रणाम करते हैं।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-452018 

2 comments:

  1. इतने तमाम मानसिक दवाबों मे लेखन और प्रकाशन के बाद भी इन दिनो सामयिक व्यंग्य लेखन को व्यंग्य टिप्पणिया कहा जा रहा है | शाश्वत बनाम सामयिक की अंत हीन बहस जारी है |बृजेशजी आपने एक व्यंग्यकार की पीड़ा का सही चित्रण किया है | सामयिक व्यंग्य गैस के गुब्बारे की तरह होते हैं जिनकी हवा प्रतिक्षण लीक होती है

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद, पिल्केन्द्रजी।

      Delete